मनन की कहानी | मनन का सोच

मनन की कहानी | मनन का सोच  


अध्याय: 1  


मनन की कहानी | मनन का सोच

मनन की कहानी | मनन का सोच 

क्या हम अपने समाज को जान पायें है? क्या हम जो देखते है वही वास्तविक है? हम जागे हुए है या सो रहे है इस इंतज़ार में की कोई आकार हमें उठा दे? एक छोटे से कमरे में बैठकर मनन यही सोच रहा था। वह दुविधा में था जानना चाहता था जीवन के बारे में। समय के बारें में। समय क्या है? जीवन क्या है? जब जाना ही है तो आयें क्यूँ? सब चीजें एक समय बात ख़तम होना है। तो शुरू क्यूँ हुआ? सभी वास्तविक चीजें एक समय बात अतीत बन जाएगी। अतीत समय की गहराई में चली जाएगी, समय शुन्य में मिल जाएगी और शुन्य। शुन्य का क्या होगा? क्या यही अंत है? या फिर यही शुरुवात है? क्या जान पायें है हम अपने जीवन के बारे में? हम तो सिर्फ दौड़ रहे है कुछ बनने के लिए। कुछ करने के लिए। करके कुछ कमाने के लिए। कमाके खर्च करने के लिए। फिर चले जाते है। यही तो करते आये है, यही कर रहे है, क्या यही करते रहेंगे। क्यूँ कर रहे है? किसने कहा करने के लिए? क्या हमारे मन ने कहा? क्यूँ मन ने कहा? क्या समाज एसे ही बना है? क्या समाज ने बनाया है यह नियम? नहीं समाज के रहने वाले लोगों ने। मैं भी तो समाज का ही रहने वाला एक आदमी हूँ। एक साधारण आदमी। क्या मेरे बनाये हुए नियम लोग मानेंगे? क्यूँ मानेंगे? क्यूंकि मैं प्रतिष्ठित नहीं हूँ। यानि समाज के प्रतिष्ठित लोगों ने बनायें है यह नियम। लेकिन कौन से नियम? कौन-कौन से नियम? कुछ करना है? कुछ नहीं करना है? अपने आपको समर्पण करना है? या उलझे रहना है? सब के लिए कुछ करना अलग अलग है। यह सोच हमें बताते है की हमें क्या करना है। लेकिन सोच आते कहा से है? कैसे जन्म होता है इस सोच का। जैसे आग का जन्म एक चिंगारी से होता है क्या उसी प्रकार एक चिंगारी से ही सोच का जन्म होता है। कौन सी चिंगारी? कहाँ लगायी जाती है यह चिंगारी? क्या दिमाग में या दिल में? क्या दिल में लगती है यह चिंगारी जो खून के साथ दिमाग तक पहुंचकर जल जाती है और पुरे शारीर पर असर गिराती है। हमारा दिल खून को लेता है और खून को फेकता है। यह प्रक्रिया है जो चलता रहता है। निरंतर चलता रहता है। क्यूँ चलना है इसे? जब एक समय बात रुकना ही है? प्रकृति की सभी चीजें एक व्यवस्थित तरीके से सजाया हुआ है। अव्यवस्थित चीजों को भी व्यवस्थित तरीके से रखा हुआ है। जो इसे मानेगा वह रहेगा वरना हटा दिया जायेगा। हम मनुष्य भी तो एसा ही करते है। हम एक व्यवस्थित समाज में रहना चाहते है। जो इस व्यवस्थित समाज को अव्यवस्थित समझने लगता है वह अपना दूसरा व्यवस्थित समाज बनाता है या ग्रहण करता है। लेकिन? लेकिन एक समय बात या उसी समय दुसरे व्यक्ति के लिए वह व्यवस्थित समाज अव्यवस्थित लगने लगता है। क्यूँ? क्यूँ की समाज कोई भी हो रहेगा तो मनुष्य ही। और जहां मनुष्य है वहा अच्छा और बुरा दोनों रहेगा। या अच्छा या बुरा रास्ता जैसे भी खोज ही लेगा। समाज तो एक रास्ता है उसे साफ या गन्दा तो मनुष्य ही करेगा। मनन सोचने लगा दिमाग भी क्या है? क्या-क्या सोच आते रहता है। जिसका कोई जवाह है की नहीं मालूम नहीं। क्या फर्क पड़ता है। सब व्यस्त है अपने जीवन को लेके और जो व्यस्त नहीं है शायद वह सपनो की दुनिया में खोएं हुए है। शायद तब तक खोएं हुए रहेगा जब तक की कोई उसे जगा न दे। कब, कौन जगायेगा? जगायेगा या फिर से नए सपनों में सुलाएगा। कैसे मालूम होगा। सोयें हुए सपनो की दुनियां में हमारा नियंत्रण नहीं उसी प्रकार समय के ऊपर भी किसी भी जीव का नियंत्रण नहीं। समय चलता रहता है। हम तो शायद धुल ही है जो समय के प्रवाह के साथ बहते जाते है।


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अध्याय: 2 

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